दो बहनें
और कुछ करने को न होने से, अनावश्यक होने पर भी, जब उसने कानून पढ़ना शुरू किया उसी समय हेमन्त के अन्त्र (आँत) में अथवा शरीर के किसी और यन्त्र में न जाने कौन-सा ऐसा विकार उत्पन्न हुआ कि उसका पता डाक्टरों को चल ही नहीं सका। वह गोपनचारी रोग उस मज़बूत शरीर में इस प्रकार घर कर गया मानो किसी प्रबल दुर्ग का आश्रय लिए हो उसे खोज निकालना जितना कठिन हुआ उतना ही उसपर आक्रमण करना भी। उन दिनों के एक अंग्रेज़ डाक्टर पर राजाराम की अविचिलित आस्था थी। अस्त्र-चिकित्सा में उनके हाथों यश भी था। इसी डाकर ने रोगी के शरीर में खोज खोज शुरू की। अस्त्र व्यवहार के अभ्यास-वश उन्होंने अनुमान किया कि देह के दुर्गम अन्तराल में कहीं विपत्ति जड़ जमाकर बैठी है, उसे उखाड़ फेंकना चाहिए। अस्त्र-चिकित्सा के कौशल की सहायता से स्तर भेद करने के बाद जो स्थान अनावृत हुआ यहाँ कल्पित शत्रु भी नहीं मिला और उसके अत्याचार का चिह्न भी नहीं। भूल सुधारने का उपाय ही नहीं रहा, लड़का चल बसा। पिता के मन में जो विषम दुःख हुआ वह किसी प्रकार शान्त होना नहीं चाहता। मृत्यु ने उनको उतना कष्ट नहीं दिया परन्तु एक ऐसी सजीव, सुन्दर और बलिष्ठ देह के चीर-फाड़ की स्मृति ने उनके मन को दिनरात काले हिंस्र पक्षी की तरह अपने तीक्ष्ण नखों से जकड़ रखा। मर्मशोषण करके उसने उन्हें मृत्यु की ओर खींच लिया।
हेमन्त का पहले का सहपाठी नया पास डाक्टर नीरद मुखर्जी उसकी शुश्रूषा में लगा था। वह बराबर ज़ोर देकर ही कहता आ रहा था कि ग़लती हो रही है। उसने ख़ुद बीमारी का एक निदान किया था और किसी सूखी जगह में आबहवा बदलने का परामर्श दिया था, किन्तु राजाराम के मन में अपने पैतृक युग का संस्कार अटल था। वे जानते थे कि यमराज के साथ दुःसाध्य लड़ाई छिड़ जाने पर उसका उपयुक्त प्रतिद्वन्द्वी एकमात्र अंग्रेज़ डाक्टर ही हो सकता है। किन्तु इस मामले में नीरद पर उनके स्नेह और श्रद्धा की मात्रा ज़रूरत से ज्यादा बढ़ गई। उनकी छोटी कन्या ऊर्मि के मन में अचानक यह बात उदय हुई कि इस आदमी की प्रतिमा असामान्य है। पिता से बोली, देखा बाबू जी, थोड़ी उम्र में भी अपने ऊपर कितना विश्वास है और इतने बड़े नामवर विलायती डाक्टर के विरुद्ध अपने मत को निःसंशय घोषित कर सकने का कैसा असंकुचित साहस है!
पिता ने कहा, "डाक्टरी विद्या केवल शास्त्र पढ़ने से नहीं आती। किसी-किसी में उसका दुर्लभ दैवसंस्कार पाया जाता है। नीरद में ऐसा ही देख रहा हूँ।"
इनकी भक्ति एक छोटे प्रमाण से शुरू हुई थी—शोक का आघात पाकर और परिताप की वेदना लेकर। इसके बाद किसी और सुबूत का इन्तेज़ार न करके वह अपने आप बढ़ चली।
राजाराम ने एकदिन लड़का से कहा, "देख ऊर्मि, ऐसा लगता है कि हेमन्त मुझे बराबर बुला रहा है। कह रहा है, मनुष्य का रोग-कष्ट दूर करो। मैंने निश्चय किया है, उसके नाम से एक अस्पताल खोलूँगा।"
ऊर्मि अपने स्वभावसिद्ध उत्साह से उच्छसित होकर बोली, "बहुत अच्छा होगा। मुझे यूरोप भेज देना ताकि वहाँ से डाक्टरी सीखकर मैं अस्पताल का भार सँभाल सकूँ।"